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Monday, July 27, 2009

जागते रहो

इस काली रात में एक आवाज़ अगर है तो वो है उस चौकीदार की छड़ी की ठक ठक । उसकी पतली टांगें जो देती हैं उसकी छड़ी का साथ, लम्बा रास्ता तय कर चुकी हैं। मेरे घर की खिड़की से उसका यह रात का सफ़र रोज़ नज़र आता है । रोज़ वह पीपल के पेड़ की तरह बंधा, गाँठ-भरा शरीर साइकिल पर बैठ कर मेरे घर तक आता है। दुबला, लेकिन बांस जैसा सीधा वह चौकीदार रोज़ मेरी गहरी नींद की खातिर अपना घर छोड़कर मेरे घर की रखवाली करने आता है। उसे देख मैं सोच में पड़ जाती हूँ । उसके चेहरे पर खिंची संकरी लकीरों पर गौर करती हूँ। और मन ही मन उससे सवाल करती हूँ - "चौकीदार तुम्हारे घर पर पहरा कौन दे रहा है? तुम्हारी बिटिया जो सपनों में अपने बाबा की साईकिल चलाती है, उसकी नींद का ज़िम्मा किसने उठाया है?" मुझे जवाब नहीं मिलता, सिर्फ रात के अँधेरे में गूंजती उस छड़ी की ठक ठक और कभी-कभी वो दो शब्द; वो पहरेदारों, चौकीदारों और रात के रखवालों का नारा - "जागते रहो!" अब नींद से भारी मेरी आँखें बंद हो रही हैं । "पर चौकीदार कहीं तुम्हारी खुली आंखों पर नीदं का साया तो नहीं ? होशियार। इस अँधेरी रात को जो तुम्हारी आँखें घूर रही हैं, उसी रात की परछाई में छिप कर दो अनजानी आँखें तुम्हें पढ़ रही हैं। बस, यहाँ तुम्हारी पलकें झपकीं, वहीँ इस सोए हुए शहर की नींद टूटी। हर रात की तरह क्या इस रात की सुबह भी तुम्हारी छड़ी की दस्तक पर आएगी चौकीदार ? हाँ। बस कुछ देर और। तब तक, जागते रहो। "